अगर हम अपने आप से पूछें कि कई हज़ार वर्षों पुरानी इस मानव सभ्यता का केंद्र क्या है – व्यक्ति या समाज, तो हमारा जवाब क्या होगा? मेरा मानना है कि हमारे तथाकथित सभ्य होने के शुरूवाती दौर में शायद कुछ व्यक्तियों ने मिल कर समाज बनाने की प्रक्रिया शुरू की होगी लेकिन आज अगर हम ध्यान से अपने चारों ओर देखें तो यह प्रक्रिया पूरी तरह उलट चुकी है – आज व्यक्ति से समाज नहीं बल्कि समाज से व्यक्ति बनाए जाते हैं हमारा ख़ान-पान, रहन-सहन, नियम-क़ानून और यहाँ तक कि सोचने का ढंग भी कहीं ना कहीं हमारे इर्द-गिर्द के समाज से ही प्रभावित होता है और नियमानुसार इन तरीकों का पालन करने वाला व्यक्ति ही आदर्श व्यक्ति कहलाता है लेकिन अगर कोई व्यक्ति समाज के इन नियमों और तरीकों पर सवाल खड़े कर, खुद अपने जीने का ढंग तय करने की कोशिश करे, तो क्या उसे यह करने की स्वतंत्रता है? यह कहानी, कॉलेज में पढ़ाने वाले ऐसे ही एक लेक्चरर की है, जो तरीकों और परंपराओं को वास्तविकता की कसौटी पर परखने का आदि है जो जीवन को किसी और के थोपे हुए ज्ञान से ज़्यादा अपने अनुभव से जीने में विश्वास रखता है और इस के लिए किसी की स्वीकृति या अनुमति लेना ज़रूरी नहीं समझता लेकिन क्या ऐसे व्यक्ति के लिए हमारे समाज में कोई स्थान उपलब्ध है? क्या कोई ऐसे व्यक्ति को अपने दिल, घर या शहर में जगह देने के लिए तैय्यर है? ऐसे ही कुछ सवालों का
जवाब है – समाधि
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